क्षुद्ररोगनिदानम्

श्लोक 1

अजगल्लिकालक्षणम्

अथ क्षुद्ररोगनिदानम् |
स्निग्धाः सवर्णा ग्रन्थिता नीरुजो मुद्गसन्निभाः |
कफवातोत्थिता ज्ञेया बालानामजगल्लिकाः ||१||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 2

यवप्रख्यालक्षणम्

यवाकारा सुकठिना ग्रथिता मांससंश्रिता |
पिडका कफवाताभ्यां यवप्रख्येति सोच्यते ||२||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 3

अन्त्रालजीलक्षणम्

घनामवक्त्रां पिडकामुन्नतां परिमण्डलाम् |
अन्त्रालजीमल्पपूयां तां विद्यात् कफवातजाम् ||३||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 4

विवृतालक्षणम्

विवृतास्यां महादाहां पक्वोदुम्बरसन्निभाम् |
विवृतामिति तां विद्यात् पित्तोत्थां परिमण्डलाम् ||४||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 5

कच्छपिकालक्षणम्

ग्रथिताः पञ्च वा षड्वा दारुणाः कच्छपोपमाः |
कफानिलाभ्यां पिडका ज्ञेयाः कच्छपिका बुधैः ||५||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 6-7

वल्मीकलक्षणम्

ग्रीवांसकक्षाकरपाददेशे सन्धौ गले वा त्रिभिरेव दोषैः |
ग्रन्थिः स वल्मीकवदक्रियाणां जातः क्रमेणैव गतः प्रवृद्धिम् ||६||

मुखैरनेकैः स्रुतितोदवद्भिर्विसर्पवत् सर्पति चोन्नताग्रैः |
वल्मीकमाहुर्भिषजो विकारं निष्प्रत्यनीकं चिरजं विशेषात् ||७||

श्लोक 8

इन्द्रविद्धालक्षणम्

पद्मकर्णिकवन्मध्ये पिडकाभिः समाचिताम् |
इन्द्रविद्धां तु तां विद्याद्वातपित्तोत्थितां भिषक् ||८||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 9

गर्दभिकालक्षणम्

मण्डलं वृत्तमुत्सन्नं सरक्तं पिडकाचितम् |
रुजाकरीं गर्दभिकां तां विद्याद्वातपित्तजाम् ||९||

श्लोक 10

पाषाणगर्दभलक्षणम्

वातश्लेष्मसमुद्भूतः श्वयथुर्हनुसन्धिजः |
स्थिरो मन्दरुजः स्निग्धो ज्ञेयः पाषाणगर्दभः ||१०||

श्लोक 11

पनसिकालक्षणम्

कर्णस्याभ्यन्तरे जातां पिडकामुग्रवेदनाम् |
स्थिरां पनसिकां तां तु विद्याद्वातकफोत्थिताम् ||११||

श्लोक 12

जालगर्दभलक्षणम्

विसर्पवत् सर्पति यः शोथस्तनुरपाकवान् |
दाहज्वरकरः पित्तात् स ज्ञेयो जालगर्दभः ||१२||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 13-14

इरिवेल्लिका-कक्षालक्षणम्

पिडकामुत्तमाङ्गस्थां वृत्तामुग्ररुजाज्वराम् |
सर्वात्मिकां सर्वलिङ्गां जानीयादिरिवेल्लिकाम् ||१३||

बाहुपार्श्वांसकक्षेषु कृष्णस्फोटां सवेदनाम् |
पित्तप्रकोपसम्भूतां कक्षामित्यभिनिर्दिशेत् ||१४||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 15

गन्धमालालक्षणम्

एकामेतादृशीं दृष्ट्वा पिडकां स्फोटसन्निभाम् |
त्वग्गतां पित्तकोपेन गन्धमालां प्रचक्षते ||१५||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 16-17

अग्निरोहिणीलक्षणम्

कक्षभागेषु ये स्फोटा जायन्ते मांसदारणाः |
अन्तर्दाहज्वरकरा दीप्तपावकसन्निभाः ||१६||

सप्ताहाद्वा दशाहाद्वा पक्षाद्वा हन्ति मानवम् |
तामग्निरोहिणीं विद्यादसाध्यां सर्वदोषजाम् ||१७||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 18-19

चिप्प-कुनखलक्षणम्

नखमांसमधिष्ठाय वायुः पित्तः च देहिनाम् |
कुर्वते दाहपाकौ च तं व्याधिं चिप्पमादिशेत् ||१८||

तदेवाल्पतरैर्दोषैः परुषं कुनखं वदेत् ||१९||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 20

अनुशयीलक्षणम्

गम्भीरामल्पसंरम्भां सवर्णामुपरिस्थिताम् |
पादस्यानुशयीं तां तु विद्यादन्तःप्रपाकिनीम् ||२०||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 21

विदारिकालक्षणम्

विदारीकन्दवद्वृत्ता कक्षावङ्क्षणसन्धिषु |
विदारिका भवेद्रक्ता सर्वजा सर्वलक्षणा ||२१||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 22-24

शर्करार्बुदलक्षणम्

प्राप्य मांससिरास्नायूः श्लेष्मा मेदस्तथाऽनिलः |
ग्रन्थिं करोत्यसौ भिन्नो मधुसर्पिर्वसानिभम् ||२२||

स्रवत्यास्रावमनिलस्तत्र वृद्धिं गतः पुनः |
मांसं संशोष्य ग्रथितां शर्करां जनयेत्ततः ||२३||

दुर्गन्धि क्लिन्नमत्यर्थं नानावर्णं ततः सिराः |
स्रवन्ति रक्तं सहसा तं विद्याच्छर्करार्बुदम् ||२४||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 25

पाददारीलक्षणम्

परिक्रमणशीलस्य वायुरत्यर्थरूक्षयोः |
पादयोः कुरुते दारीं पाददारीं तमादिशेत् ||२५||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 26

कदरलक्षणम्

शर्करोन्मथिते पादे क्षते वा कण्टकादिभिः |
ग्रन्थिः कोलवदुत्सन्नो जायते कदरं हि तत् ||२६||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 27

अलसलक्षणम्

क्लिन्नाङ्गुल्यन्तरौ पादौ कण्डूदाहरुजान्वितौ |
दुष्टकर्दमसंस्पर्शादलसं तं विभावयेत् ||२७||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 28-29

इन्द्रलुप्तलक्षणम्

रोमकूपानुगं पित्तं वातेन सह मूर्छितम् |
प्रच्यावयति रोमाणि ततः श्लेष्मा सशोणितः ||२८||

रुणद्धि रोमकूपांस्तु ततोऽन्येषामसम्भवः |
तदिन्द्रलुप्तं खालित्यं रुह्येति च विभाव्यते ||२९||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 30

दारुणकलक्षणम्

दारुणा कण्डुरा रूक्षा केशभूमिः प्रपाट्यते |
कफमारुतकोपेन विद्याद्दारुणकं तु तम् ||३०||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 31

अरूंषिकालक्षणम्

अरूंषि बहुवक्त्राणि बहुक्लेदीनि मूर्ध्नि तु |
कफासृक्क्रिमिकोपेन नृणां विद्यादरूंषिकाम् ||३१||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 32

पलितलक्षणम्

क्रोधशोकश्रमकृतः शरीरोष्मा शिरोगतः |
पित्तं च केशान् पचति पलितं तेन जायते ||३२||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 33

युवानपिडकालक्षणम्

शाल्मलीकण्टकप्रख्याः कफमारुतरक्तजाः |
युवानपिडका यूनां विज्ञेया मुखदूषिकाः ||३३||
(सु. नि. अ. १३) |३४|

श्लोक 34

पद्मिनीकण्टकलक्षणम्

कण्टकैराचितं वृत्तं मण्डलं पाण्डुकण्डुरम् |
पद्मिनीकण्टकप्रख्यैस्तदाख्यं कफवातजम् ||३४||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 35

जतुमणिलक्षणम्

सममुत्सन्नमरुजं मण्डलं कफरक्तजम् |
सहजं लक्ष्म चैकेषां लक्ष्यो जतुमणिस्तु सः ||३५||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 36

मषकलक्षणम्

अवेदनं स्थिरं चैव यस्मिन् गात्रे प्रदृश्यते |
माषवत्कृष्णमुत्सन्नमनिलान्मषकं तु तत् ||३६||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 37

तिलकालकलक्षणम्

कृष्णानि तिलमात्राणि नीरुजानि समानि च |
वातपित्तकफोच्छोषात्तान् विद्यात्तिलकालकान् ||३७||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 38

न्यच्छलक्षणम्

महद्वा यदि वा चाल्पं श्यावं वा यदि वाऽसितम् |
नीरुजं मण्डलं गात्रे न्यच्छमित्यभिधीयते ||३८||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 39

व्यङ्गलक्षणम्

क्रोधायासप्रकुपितो वायुः पित्तेन संयुतः |
मुखमागत्य सहसा मण्डलं विसृजत्यतः ||३९||
नीरुजं तनुकं श्यावं मुखे व्यङ्गं तमादिशेत् |
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 40

नीलिकालक्षणम्

कृष्णमेवङ्गुणं गात्रे मुखे वा नीलिकां विदुः ||४०||

श्लोक 41-43

परिवर्तिकालक्षणम्

मर्दनात् पीडनाद्वाऽति तथैवाप्यभिघाततः |
मेढ्रचर्म यदा वायुर्भजते सर्वतश्चरन् ||४१||

तदा वातोपसृष्टत्वात्तच्चर्म परिवर्तते |
मणेरधस्तात् कोशश्च ग्रन्थिरूपेण लम्बते ||४२||

सरुजां वातसम्भूतां तां विद्यात् परिवर्तिकाम् |
सकण्डूः कठिना वापि सैव श्लेष्मसमुत्थिता ||४३||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 44

अवपाटिकालक्षणम्

अल्पीयःखां यदा हर्षाद्बलाद्गच्छेत् स्त्रियं नरः |
हस्ताभिघातादपि वा चर्मण्युद्वर्तिते बलात् ||४४||
यस्यावपाट्यते चर्म तां विद्यादवपाटिकाम् |
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 45-47

निरुद्धप्रकशलक्षणम्

वातोपसृष्टे मेढ्रे वै चर्म संश्रयते मणिम् ||४५||

मणिश्चर्मोपनद्धस्तु मूत्रस्रोतो रुणद्धि च |
निरुद्धप्रकशे तस्मिन् मन्दधारमवेदनम् ||४६||

मूत्रं प्रवर्तते जन्तोर्मणिर्विव्रियते न च |
निरुद्धप्रकशं विद्यात् सरुजं वातसम्भवम् ||४७||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 48-49

सन्निरुद्धगुदलक्षणम्

वेगसन्धारणाद्वायुर्विहतो गुदसंश्रितः |
निरुणद्धि महास्रोतः सूक्ष्मद्वारं करोति च ||४८||

मार्गस्य सौक्ष्म्यात् कृच्छ्रेण पुरीषं तस्य गच्छति |
सन्निरुद्धगुदं व्याधिमेतं विद्यात् सुदारुणम् ||४९||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 50-51

अहिपूतनलक्षणम्

शकृन्मूत्रसमायुक्तेऽधौतेऽपाने शिशोर्भवेत् |
स्विन्ने वाऽस्नाप्यमाने वा कण्डू रक्तकफोद्भवा ||५०||

कण्डूयनात्ततः क्षिप्रं स्फोटः स्रावश्च जायते |
एकीभूतं व्रणैर्घोरं तं विद्यादहिपूतनम् ||५१||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 52-53

वृषणकच्छूलक्षणम्

स्नानोत्सादनहीनस्य मलो वृषणसंस्थितः |
यदा प्रक्लिद्यते स्वेदात् कण्डूं जनयते तदा ||५२||

कण्डूयनात्ततः क्षिप्रं स्फोटः स्रावश्च जायते |
प्राहुर्वृषणकच्छूं तां श्लेष्मरक्तप्रकोपजाम् ||५३||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 54

गुदभ्रंशलक्षणम्

प्रवाहणातीसाराभ्यां निर्गच्छति गुदं बहिः |
रूक्षदुर्बलदेहस्य गुदभ्रंशं तमादिशेत् ||५४||
(सु. नि. अ. १३) |

श्लोक 55

वराहदंष्ट्रलक्षणम्

सदाहो रक्तपर्यन्तस्त्वक्पाकी तीव्रवेदनः |
कण्डूमाञ्ज्वरकारी च स स्याच्छूकरदंष्ट्रकः ||५५||

पुष्पिका

इति श्रीमाधवकरविरचिते माधवनिदाने क्षुद्ररोगनिदानं समाप्तम्  ||५५||